भक्ती से भगवान

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((((((      *भक्ती    से    भगवान*       )))))))

भक्ति, प्रेम भी नहीं है। प्रेम तो एक फूल की तरह होता है, फूल सुंदर होता है, सुगंधित होता है लेकिन मौसम के साथ वह मुरझा जाता है। भक्ति पेड़ की जड़ की तरह होती है। चाहे जो भी हो, यह कभी नहीं मुरझाती, हमेशा वैसी ही बनी रहती है।
बसंत का समय हो तो पेड़ पर खूब पत्तियां आती हैं। पतझड़ आता है, तो यह फूलों से लद जाता है। सर्दियां आती हैं, यह उजड़ जाता है। बाहर चाहे जो चल रहा हो, लेकिन जड़ें अपना काम लगातार करती रहती हैं। एक पल के लिए भी इधर-उधर विचलित नहीं होतीं। पेड़ का पोषण करने का जड़ों का जो मकसद होता है, वह एक भी पल के लिए कम नहीं होता, भले ही उसकी सतह पर कैसे भी बदलाव हो रहे हों। जड़ें कभी ऐसा नहीं सोचतीं कि अरे, कोई पत्ती ही नहीं बची, अब मैं क्यों काम करूं? कोई फूल नहीं है, कोई फल नहीं आ रहा है, मैं क्यों काम करूं? ऐसा नहीं होता है। जड़ें बस हमेशा काम करना जारी रखती हैं। अगर कोई हमेशा सजगता पूर्वक काम में लगा रहता है, नींद में भी उसका काम जारी है, तो वह भक्त है। केवल भक्त ही हमेशा लगा रह सकता है। हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।

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