बगैर बाहें फैलाए एक आलिंगन !


*बगैर बाहें फैलाए एक आलिंगन !*

दसवीं क्लास में जब मैं पहली बार फेल हुआ, कितना डरा-सहमा, शर्म और ग्लानि से भरा घर पहुँचा था, सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं जानता हूँ।

साल 1986 में जब 10 प्लस 2 पाठ्यक्रम लागू हुआ, मेरी पहली ही बैच थी। किसी को कुछ समझ न आया। सरकारी स्कूलों के 'बेचारे' शिक्षक नए कोर्स की ट्रेनिंग लेते रहे और साल गुजर गया। परीक्षा की घड़ी आ गई। सारे सहपाठियों की तरह मुझ पर भी 'एक्ज़ाम फोबिया' था। डर में न पढ़ाई हुई न परचे अच्छे गए।

जब नतीजे का दिन आया, पिता को पूर्वानुमान था इसलिए बड़ा भाई साथ स्कूल भेजा गया। मार्कशीट मिली तो 6 में से दो विषय गणित और अंग्रेजी में फेल था। इतने कम नम्बर थे कि सरकार के तय किए 30 नम्बर के 'ग्रेस मार्क्स' भी कम पड़ गए। एकमात्र 'सुकून' था तो ये कि सारे दोस्त फेल थे।

पिता की अदालत में अपने बचाव के लिए मेरे पास 'तर्क का तिनका' बस इतना था कि सारे दोस्त फेल हो गए और मैं सप्लीमेंट्री का पात्र तो हूँ!

हाथ में अपनी नाकामयाबी का दस्तावेज थामे ऐसे हज़ार जवाब जिव्हाग्र पर जमाता भाई के साथ घर आया।

माता-पिता तो संतान की सूरत देख पूरा अस्तित्व बाँच लेते हैं, सो मेरे पिता ने भी बाँच ली। न मैं कुछ बोला न वे बोले। मैं बोलने लायक न था, पिता जानते थे वह समय उनके बोलने लायक नहीं है।

जानना चाहेंगे तब मेरे पिता ने क्या किया ? अपनी जेब से पाँच रुपये का नोट निकाला, बड़े भाई को दिया और कहा, 'इसके साथ जाओ और फ़िल्म दिखा लाओ।'

इंदौर के प्रकाश टाकीज में किशोरकुमार की कॉमेडी फिल्म 'प्यार किए जा' देखी गई। एक रुपये 60 पैसे के दो टिकट के बाद बचे एक रुपये 80 पैसे से इंटरवल में पाव के साथ आलूबड़े का भोग लगा। शाम कोई पाँच बजे अन्न का पहला दाना। दिन भर से 'रिज़ल्ट फ़ोबिया' ने भूख के गले पर छुरी जो धर रखी थी!

उसके बाद मैं कभी फेल न हुआ। साल दर साल बेहतर ही हुआ, जितना भी हो सका!

आपका बच्चा जब मायूस मुख घर आता है और कहता है, 'परचा कमजोर गया।' तब उसे कभी मत कहिए कि 'हम तो समझाते ही थे, तुम मस्ती करते रहे, अब भुगतो।'

क्योंकि उस घड़ी उसे आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

याद कीजिए जब वह परचा देकर उछलता हुआ घर आया था और तब आपने उसे बाहों में भर लिया था। इसलिए तब भी बाहों में भर लीजिए जब वह बस्ता फेंककर नहीं, रखकर जूते उतार रहा है।

तब उसे आपके आलिंगन की अनिवार्य आवश्यकता है।

शायद उतनी ही जितनी मुझे उस दिन अपने पिता की 'अनपेक्षित प्रतिक्रिया' की थी। एक शब्द न कहकर बहुत कुछ कह दिया था और मैंने सुना ही नहीं, समझ भी लिया था।

बगैर बाहें फैलाए आलिंगन घट गया था!

परीक्षा के दिन हैं। अपने-अपने अंतर में अपने-अपने आलिंगनों की खुशबू सम्भालिए, बहुत बार फैलाना पड़ेगी।

👍🏻🙏🏻👍🏻
 A great message for all parents👍🙏👍

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