आपका मन कहाँ है ?


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आपका मन कहाँ है ?

वनवास के समय एक बार भगवान श्रीरामचंद्र ने लक्ष्मणजी से कहा "भाई ! एक कुटिया बनाओ।"
लक्ष्मण जी ने पूछा :"कहाँ बनाऊँ ?"

श्रीरामजी ने कहा :"जहाँ तुम्हारा मन चाहे,वहाँ बना लो।" इतना सुनते ही लक्ष्मणजी एकांत में जाकर फूट-फूटकर रोने लगे। सीताजी ने श्रीरामजी से कहा :"आपने लक्ष्मण से क्या कह दिया? वे बड़े दुःखी हैं,फूट-फूटकर रो रहे हैं।"

श्रीरामजी ने कहा :"मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा ।" वे तुरंत लक्ष्मणजी के पास पहुँचे और उन्हें पुचकारकर उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से बोले :
"भ्राता ! क्या बात है,रो क्यों रहे हो ?"

अपने प्रियतम का स्पर्श पाकर तो लक्ष्मणजी और जोर-से रोने लगे। श्री रामजी ने उन्हें पुचकारा,
सांत्वना दी,उनके आँसू पोछे व पूछने लगे :"भैया लक्ष्मण ! बात तो बताओ। मुझे अपने दुःख का कारण बताओ।"

बड़े कष्ट से लक्ष्मणजी बोले : परवानस्मि काकुत्स्थ.... 【वाल्मीकि रामायण】
हे ककुत्स्थ कुलभूषण ! मैं तो पराधीन हूँ। मैंने तो अपना तन मन सर्वस्व आपके चरण समर्पित कर दिया है।
आपने कहा : जहाँ तुम्हारा मन करे,जहाँ तुम्हें अच्छा लगे,वहाँ कुटिया बना लो।
राघव ! अब यह मन मेरा कहाँ है ?

"भैया बड़ी भूल हुई । अब चलो,मैं तुम्हें स्थान बताता हूँ।"
फिर एक स्थल की ओर संकेत करते हुए श्रीरामजी बोले :"यह स्थान एक-सा है,चौरस है,सुंदर है,यहीं कुटिया बनाओ।"

अपने स्वामी की आज्ञा पाकर लक्ष्मणजी प्रसन्नतापूर्वक वहाँ कुटिया बना दी।

भगवत्कृपा-पात्र बनने की एकमात्र शर्त यही है कि अपना सर्वस्व प्रभु के चरणों में समर्पित कर दें अपनी कहलानेवाली कोई वस्तु रहे ही नहीं लक्ष्मणजी की भाँति अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए ।
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