भगवान ""उनके"" भक्त ""और"" प्रेम""



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""भगवान ""उनके"" भक्त ""और"" प्रेम""
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"""बहुत सुंदर""""बड़े भाव से पढ़े"""
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नरसी मेहता जी के जीवन की एक घटना आप सभी महा नुभावों को समर्पित।

नरसी जी भगवान कृष्णा के भक्त थे। उनकी पूजा, भजन कीर्तन मे ही जीवन व्यतीत करते थे।

एक बार नरसी जी का बड़ा भाई बंशीधर नरसी जी के घर आया। पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।

बंशीधर ने नरसी जी से कहा :- 'कल पिताश्री का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'

नरसी जी ने कहा :- 'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'

इतना सुनना था कि बंशीधर उखड गए और बोले:- 'जिन्दगी भर यही सब करते रहना, जिसकी गृहस्थी, भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'

नरसी जी ने कहा:- 'नाराज क्यों होते हो भैया? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।' दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, और यह बात नागर-मंडली को मालूम हो गयी।

नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची। पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया।

प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा...?

आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई को लग गया और वह चिंतित हो उठी।

अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार चले गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा। बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद की बात है।

अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।

यहाँ नरसी मेहता गाते रहे भजन और वहाँ नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। जय हो प्रभू, दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहाँ "श्री कृष्ण" नरसी जी के रूप में श्राद्ध करवा रहे हैं।

जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या लीला है, अद्भुत, भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भगवान ने नरसी का वेश धर लिया।

वो कहते हैं ना कि
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"अपना मान भले टल जाए,भक्त का मान न टलते देखा...?प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर,प्रभु को नियम बदलते देखा।अपना मान भले टल जाये,भक्त मान नहीं टलते देखा॥

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया।
दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।

सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में...

वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू-टोना जानता है। इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि उनकी पत्नी मानिक्बाई भोजन कर रही है।

नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और श्रीमती भोजन करने बैठ गयी हैं!

श्री नरसी ने कहा:- 'वो क्या है कि मुझे आने में ज़रा देर हो गयी। क्या करता, कोई उधार में घी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन कैसे कर रही हो........?'

मानिक बाई बोली:- 'आपको क्या हो गया है, आप ठीक तो हो...? स्वयं खड़े होकर आपने श्राद्ध का सारा कार्य किया। ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। सब विदा हो गए, अब आप भी भोजन करलो।

ये बात सुनते ही नरसी भगत समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रखने आये थे। गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भक्तवत्सल भगवान ने बचा लीया।

गरीब के मान को भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा ली।

नरसी जी मन भर कर गाते रहे
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कृष्ण जी कृष्ण जी कृष्ण जी कहें तो उठो रे प्राणी ;
कृष्ण जी ना नाम बिना जे बोलो तो मिथ्या रे वाणी !

भक्त के मन में अगर सचमुच समर्पण का भाव हो तो भगवान स्वयं ही उपस्थित हो जाते हैं।

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     ★★★ बांके बिहारी लाल की जय  ★★★
 🌷..जय जय श्री राधेश्याम..🌷

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